Tuesday, 10 July 2012

धीरे से अपने मन को



    (१)

मैंने देखा-----
भंवर में नाचती : एक सूखी पत्ती
प्रकृति का स्वयंसिद्ध मृत्यु-उल्लास

मैंने देखा----------
एक चाँद समूचा
जिसके चेहरे पर किसी ने
सांझ की धुंधली तस्वीर से
मिट्टी निकाल पोत दी हो

मैंने देखा--------
एक शर्मिला ललमुहाँ सूरज
जो चाँद पर पुती मिटटी को
बैलों के पैरो के नीचे
दाबते जाता है
रोज़ थोडा-थोडा

मैंने देखा -----

आदिम प्रार्थनाएं
नींद में भटकतीं
अंतरिक्ष में
धूमकेतुओं की तरह
जिसपर लोगो की यह आस्था है
की वहां
हवा की अनुपस्थिति के बावजूद
उन्हें
कोई सुनता है
फिर चुनता है
चुनांचे लौट आते हैं लोग
अपने-अपने खोहों में
अगली प्रार्थना की तैयारी को

    (२ )

कल्पना का क्रम टूटा
कुछ बेढंगी आवाज़ों से
लोगो के सिर पर कुछ गूमड़ उग आये थे
सामने थी कमज़ोर पड़ती एक  नदी
जिसमे घुलती
मल और मालाएं
मूत्र और दीप
खखार और राख
लोथड़े और स्मृतियाँ

वे ठीक ही कहतें हैं
की आस्था मासूम होती है
( नाक की गन्दगी मुहँ में डाले शिशु की तरह )

         (३)

आसपास की
दूर-दराज़ वाली जगहों में घूमा
उन्हें टोहा
टोहकर पाया
को मैंने अबतक जो देखा
वो फफूंद लगीखट्टी सब्जी की तरह
बासी था
विचार,नारें,घर,गलियां,हंसी,उदासी
सब कुछ
ये जो बारिश अभी-अभी शुरू हुई है वो भी
यहाँ तक की
मेरे ये सारे के सारे अवलोकन भी

तो क्या कुछ भी हरा-सा बचा है
वो भी काई हो जायेगा ?

         (४)

झुंझलाए मन से
टीन के  करकट के नीचे बैठ
मैं देख रहा था
अपने आसपास की
उन दूर-दराज़ वाली जगहों को
फिर से

पर इस बार

मैंने देखा---------

गर्भवती मादा खरगोश को
रोटी खिलाती
एक लरजती हुई बुढ़ियाँ
जिसकी झुर्रियों में
खीच जाती है कई मुस्कुराहटें
एक साथ

टांगों में टांग फँसाकर
गोल-गोल नाचते
शोर मचाते बच्चे

शहरी औरतों के
गवईं गीतों की
स्वर-लहरी को सुन
ठिठकी एक बिल्ली

मुंडेर पर बैठ
एक औघड़ कौवां
अपनी भींगी सुन्दरता पर 
"हाय-हाय" करता 

एक अटकी हुई 
कागज़ की कश्ती को 
अपना घर मान बैठा 
घरेलूपन से मुक्त 
एक प्रसन्न कनखजूरा 

करकट से चूते
टिपटिपवा में  नहाता 
एक अल्हड मस्तमौला कुत्ता 

और 
हवा 
फिर हवा में नाचती 
एक और हवा --
फुहारों के साथ 
मेरे चेहरे पर 
सब कुछ भुला डालने जैसी 
मदहोशी छीट कर   
चुरा ले गयी मेरी थकान 
कही अनंत में 

    (५) 

मैंने धीरे से 
अपने मन को कहा 
ओ मन ! 
ऐसे में 
टहलना ही उचित है 
दौड़ने में तो 
काफी कुछ 
छूट जाता है !! 


                                सजल (२४-०४-०९)

© 2012 कापीराईट सजल आनंद    
  

Monday, 9 July 2012

बांवरी गौरिया

बांवरी गौरिया
तुम्हे भ्रम हो गया है !

तुम्हारे चुने हुए तिनको में
नमी आ गयी है
और तुम्हारा वो स्थाई मुंडेर
रिसने लगा है

तुम्हारे गए हुए
सोहर,कजरी और चैती
अब एक चिढ पैदा करती है
और खुद तुम्हारे कंठ भी
अब "सँझा" भूल रहें है !!

आटा-चक्की से
हर शाम को आती
उस उदास आवाज़ में
 तुम्हारी चहक अब
हर चीज़ को बोझिल कर देती है

और गाँव तुम्हारा .....
जिस आम के गाँछ पर
तुम सुस्ताती थी
वो अब
किसी मरणशील हठयोगी-सा खड़ा है
वहीँ निर्जल

जिस बुढ़िया के कटोरे से
तुम गीला भात चुराती थी
वो अब
फेक दी गयी है फटे पोछे-सा
कहीं निर्जला

 वो धनेसर पड़ित सिवाले वाला
 जहाँ तुम मंडलाती थी तुलसा रानी के पास
अब विन्ध्याचल में
कालपुरुष का भय बेचता है

और एक था परमेसर चमार
हाँ वो ही ...
 जिसके ढहे  कुटुंब से  उड़कर
तुम्हारा कुटुंब
आया था हमारे यहाँ
अब  काट रहा है सज़ा
 भैस चोरी की 

और बिरहा गाता भिखारी अहीर 
जिसकी  आवाज़
बहुत दूर से आती थी 
अब
शहर के कारखाने में खटते-खटते
खाट धर चुका है 

मुझे याद है
तुम्हारी दादी
तुम्हारी माँ को
इन्द्रधनुष वाली कहानी सुनाती थी
इनार के ढेकुल पर बैठ
जिसमे ज़िक्र था
चील की डरावनी आँखों का ,
 बाढ़ की धार में बह गए अण्डों का


तुम्हारी माँ जिन खेतो से
केंचुए लाती थी तुम्हारे लिए
वो अब सरकारी हो गए
ढेकुल टूटा पड़ा है
इनार चुप है कई दिनों से
 मरे हुए कछुए लिए
 और अब तो दुकाने भी
सीमेंट वाली हो गयीं हैं !!

हाँ! तुम्हारा गाँव
जो सबका गाँव था
अब किसी का नहीं
उस एक गाँव में
सबके अपने-अपने गाँव हैं

पर तुम हो की मेरे बार-बार
रोशनदान साफ करने पर भी
फिर आ-धमकती हो
किस बात से घबराकर !!

मेरी गौरैया !
मुझे माफ़ करना
मैं भी अब इसी युग का
हो गया हूँ
तुम्हारी सारी हरकते
आनुवांशिक नहीं हो सकती
या फिर
बांवरी गौरैया.....
तुम्हे भ्रम हो गया है !

                                  ------सजल (०४-०१-०४).
© 2012 कापीराईट सजल आनंद


Sunday, 8 July 2012

अंगूर और औरत


            (१)

कांच की तश्तरी पर
सोये अंगूरों की भी
एक कहानी है : सदियों लम्बी
जिसमे समन्दर को घेरे
बादलों-सी ख़ूबसूरत
एक मदगल रमणी
मासूम सेज़ पर लेटी
अपने मदनालय से
देती है उधार
गुलाब की हज़ारों पंखुरियों की गंध
अपने प्रेमी को
बुलबुल के मीठे अंदाज़ में
और ढ़ालती है अपने देश की गलियों को
अपनी नर्म और स्निग्ध देह के
मांसल मोड़ों की तरह

वो गलियाँ तुम्हारी कल्पना में
मिस्र,वेनीस या मगध की भी हो सकती हैं

वो पृथ्वी के दोनों ध्रुवों को
अपनी छाती पर टिकाये
जगाती हैं कोमल हरीयाए
विस्तृत तृणभूमि पर उछलते
रेशमी मेमने जैसी सुबह को
वो गुनगुनाती है रेतीली नदी-सी
सुनहली धुप को : बरसात की आवाज़ में
उसकी डबडबाती आवाज़ को सुन
खिची चली आती है
फड़फड़ाती हुई ---नीलम शाम
और स्त्री के काले केश से
कृष्ण-पक्ष के श्वेत तारकों से
तनी हुई सुन्दर काली रात निकलती है
ओढ़ाने धरती को
नींद की चादर 

      (२)

निष्ठुर तुम !!
ढहते चट्टानों-से निष्ठुर !
समय तुम!
किन रूहों की मौत मरे  ?
तुम तो आये थे किसी विस्फोट से निकल
हममें भोजन और मुस्कान बांटने  !

तुमने छोड़ दिए अपने गुप्तचर  
वर्षों के!!
जो फैलते गए शैवालों की तरह
समूची दुनिया में
जिन्होंने गढ़ दिए
नए संवाद!
नए दृश्य!
नयी गंध!
नयी आवाजें!

जिससे चखा गया
स्वेद और अश्रुओं के बीच के
नमकीन अंतर को

जिससे सूंघा गया
पुष्प और रक्त के बीच बिछे
बारूदी सुरंग को

जिससे दृष्टि ने पृथक किया
खुली और ढकी जाँघों को
एक-दूसरे से

जिससे सुना गया
लय और चोट के बीच की
बारीक समझ को  

और ये चोटें स्त्रियों के हिस्से में
ज्यादा आई
दो टांगों के बीच की चोट
करैत के ज़हर-सी घातक
जो घुमती है तंत्रिकाओं में
कई बरस
बेख़ौफ़-बेशर्म !

       (३)

संवेदनाहीन तुम !
बर्फ में दबे तिनकों-से संवेदनहीन
तुम समय!
तुम्हें तो नष्ट हो जाना था उसी दिन
जब अंगूर पर्याय बना
हरम का

और सुनो क्षण-क्षण मरते मनुष्यों  !
इन तश्तरियो में
स्त्रियों के शोक में डूबे 
अंगूरों की कहानी
तुम्हारी भी कहानी है
उतनी ही पुरानी और सच्ची
जितना की तुम्हारा निषेचन !

देखो झांक के
अंगूरों के गुच्छों से
औरतें झाकतीं हैं
और मैं देख सकता हूँ उनमें
एक केशहीन स्त्री !!

                               -----सजल (२९-०७-२०११)

© 2012 कापीराईट सजल आनंद






Thursday, 5 July 2012

 रात में मैं एक आवाज़ 
                                 (ईरानी गायिका शुशा को सुनते हुए )
              
     (१)

कौन है जो बुलाता है
रह-रह कर ?

विस्मित हूँ  मैं
जैसे बार-बार
चौंक जाता है
एक छौना
जब हवा छू कर 
निकल जाती है 
सूखी हुई पत्तियों को

         (२)

सब कुछ छूटा-सा है यहाँ
जैसे छोड़ दी जाती है तट पर
टूटी हुई डोंगी एक ज़माने से  !

जबकि विचारों की
भींगी सतह पर
बूँदें चल रहीं हैं
बेसुध नींद में

(क्या मेरी ही नींद मुड़ी है उस तरफ ? )

            (३)

अपने आधे जीवन को
क्या पुकारती है कोई परेशान बुलबुल??
या बग़दाद की गलियों  में
किसी ने बजाई है नेह
मेरे लिए.......

किसकी है ये आवाज़
जो मल देती है  मेरी नींद पर
ठंढी रेत   !

या फिर वो एक आवाज़
कई आवाज़े हैं--------

किसी ठहरे हुए कारवाँ में
जलती हुई लकड़ियों को घेरे
जाती हुई शाम के गीत !!

या आषाढ़ के प्रारंभ में
खुले मैदानों में
एक साथ झुकी हुईं
कई औरतों की
सुनहरी प्रार्थनाएं !

        (४)
मेरे सिरहाने पर
एक जुगनू है
जिसके अन्दर
जलता-बुझता है
एक ठूठ पेड़ का
गंधहीन अवसाद
जिस पर बैठ कर
मैं अक्सर सोचा करता हूँ
सालों बाद के
अपने जीवन के बारे में
           (५)

लोगों ! मैं जानता हूँ की
आहिस्ता -आहिस्ता
मैं घूम रहा हूँ उजाले की ओर
जहाँ सबकुछ उलझ जाता है
फिर से
रोज़-ब-रोज़ 

पर अभी इस अन्धकार में
मैं और मेरे सामने बैठा  "मैं"
दोनों मिलकर
गलबहियां कर सकते हैं
अभी कुछ देर और
जब तक की
हमारे कानो तक मौजूद है
वो आवाज़ !

            (६)

मेरे बाल सफ़ेद हो रहे हैं
मेरे ही सामने
अक्स हवा होती जा रही है
जुगनू  ढीला पड़ रहा  है
और अब
पुकार लौट रही है
लम्बी पगडंडियों से होते
अपने देश ........
 
         (७)

रहस्य मैं ही हूँ 
पर अब चुप हूँ
सुन रहा हूँ
एक नयी आवाज़
मेरी ओर मुड़ती
नींद की !
                                   -------    सजल

© 2012 कापीराईट सजल आनंद


संबोध-गीत पर्दों के लिए



         (१)

पर्दें सिसकतें हैं  
जब उन पर आखिरी सिलाई 
चल चुकी होती है 
 जैसे सिसकती है कोई तरुणा
मुंह छुपाये अकेले में 
जब उसकी जाँघों पर रक्त की एक धार
लुढ़क जाती है जबरन 


           (२)

पर्दें हमारा अवचेतन मन है 
 हमारी एक दिलचस्प उपलब्धि 
खासतौर पर अब 
जबकि छुपाना
बेहद ज़रूरी हो चला है 
इस गुप्त-प्रयोगशाला जैसे जीवन की 
गतिविधियों को 
अपने ईर्ष्यालु 
पड़ोसियों और सगे-सम्बन्धियों से 


            (३)

 ढक लेते हैं परदे उन अधेड़ पुरुषों को 
जो अपने होठ रंग,साया पहन     
तलाशतें हैं दर्पण में अपने लिए 
एक सुन्दर औरत 

जो संवार रही होती है बाल

एज्ग्यांह देगा की तस्वीर जैसी  


               (४)

ढक लेते हैं पर्दें उन स्त्रियों को भी 
जो नहाने के बाद 
अपने गहनें उतार 
लेट जाती है बिस्तर पर 
विन्ची के रोमन अभियन्ता की मुद्रा में 
घर के पिछले दरवाज़े पर नज़रें गड़ाएं


               (५)

कभी-कभी झूलते हुए परदे
लगते हैं 
शिशुओं के हिलते पैरों की तरह
दरअस्ल उस वक़्त भी
वे लड़ रहे होते हैं 
सैटलाइटों की बुरी नज़रों से 
हमारे और आपके लिए 
सरहद पर तैनात फौजी की तरह 



             (६)

हम अभी और भी पर्दें लगायेंगे 
जैसे हम सजातें है घर के कोनो को 
पोलिस्टर के फूलों से 
क्योंकि मुक्त जीवन के सभी रास्तें जाते हैं
कबीलों की ओर 
जंगलों से होते हुए
वहां भी ओट लिए बैठें हैं 

शिकारी कई सारे !!


                            -------- सजल (२५/०७/२०११)


© 2012 कापीराईट सजल आनंद


Monday, 2 July 2012

छुट्टियों की जंग

युवा हूँ  
भड़क जाता हूँ 
जब बन्दूक करती है बकवास
उकता जाता हूँ
जब बातें होतीं हैं  सिर्फ पेट,दिमाग और लिंग की
उमस के मारे बंजर हो चुके मंचों पर
क्योंकि इन दिनों सिर्फ बातें ही हैं
और कुछ भी नहीं

जबकि ये दुनिया
तभी रह सकती है
जब इसमें बातें कम हों
और छुट्टियाँ ज्यादा !

और इन बातों के बीच
किसी अँधेरी शाम को जब
नज़रबंद जंगलों से
रिहा होकर आती ढंडी हवा
 घेर लेतीं हैं मुझे 
गुनगुना देता हूँ  प्रेम के कई गीत
जिसमे ज्यादातर बारिश होती है ,फूल होतें हैं
विषाद और शिकायतें भी
 -सिर्फ एक अजनबी स्त्री के लिए

किसी सफ़ेद रात को जब कदम लड़खड़ा रहे होतें हैं 
 भीच लेता हूँ  आवारा कुत्तों को अपनी बाँहों में
चूम लेता हूँ उन्हें लौट आये पिता की तरह 

 मगर यकीन जानें कठिन होती  है 
 युवा बने रहने की कवायद 
किसी मगरमच्छ को सहलाने जितना 

बड़ी तकलीफ होती है जब चश्मा फूट जाता है 
दर्द होता है जब कलम छूट जाती है जहाँ-तहां   
किताबो पर जमीं धुल जब झड़ती है 
तब कमरें में शर्म छींकती है-ज़ोर  से
नितम्ब सुन्न हों जाते हैं 
कुर्सी पर बैठे-बैठे
जब पन्नें कोरे रह जातें हैं
सुबह से शाम तक 
घरों की बाल्कनी में  झूलते नाड़ें
मुझे बतातें हैं की मेरे अन्दर का बायाँ त्रिकोण 
अब भी रिक्त है


कितनी  तिल्लियां जमा हो गयीं हैं बुझी हुईं
देखते-देखते पैरों के पास
सपनो के बोझ के मारे
कितनी दरारें आ गयी हैं चेहरे पर 
जीवन ब्लेड की धार पर खिसकता है
जिसमे अफ़सोस बहुत सारे हैं 

पर आज कई दिनों बाद फिर से
बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ ज़रूरत 
अभी-अभी फूली रोटी की तरह साफ़-शफ्फाक
एक नए पजामे की
जिसे पहनकर 
मैं जाऊंगा लड़ने 
छुट्टियों की जंग !

                                     -- सजल

© 2012 कापीराईट सजल आनंद





Thursday, 28 June 2012

 राग हमीर

 ( विलंबित)

 छीज रही है हवा 
ख़ाली प्याली में भरी 
नमकीन उदासी को

उस बेज़ार कूचे से 
मिट्टी के तारों की 
आ रही है
तेज़ श्वेत गंध 

पहचान की  
एक पुरानी रात 
ढल रही है मुझमें      

 मैं ढूंढ रहा हूँ बिस्तर पर कुछ
अपनी एड़ियां रगड़ते 

     (मध्य) 

एक खोया हुआ 
 नाम
नीले पंख लगाकर
मेरे होठों पर फड़फड़ा रहा है

मेरी पलक
अपनी साँसे रोके
थमी है
सिकुड़े पन्ने के 
पीले धब्बें पर
जिसमें 
मेरी 
एक उम्र
बोल रही है --

   (द्रुत) 

मेरे पंजे भाग रहें हैं 
उस तरफ 
जहाँ मैं 
ठहर गया था 

पलकें हांफ रहीं हैं 

मैं बंद हूँ 
किसी नए संवाद के लिए 

रात भर बोलेगी ये रात 
मेरी उम्र से 

उन रातों से
कोसों  लम्बी 
ये रात !

                                            ----सजल  

© 2012 कापीराईट सजल आनंद 














Monday, 25 June 2012


  
राग मारवा

(विलंबित)

काँप उठा  
अलतई वृत्त

खींचता उसे
आकाश का दर्पण

तीर पर बैठी अनूढ़ा 
देख रही यह सब 

  (मध्य)

स्पर्श पा 

थिर हो गयी 
लजाकर
लहर

खुल गए कुंतल 
ढप गया  दर्पण     

प्रतीक्षारत नयनों में 
घुल रही स्याही 
मौन की

     (द्रुत)

हिलोरती हवा 
भींगे सेज को

मौन टूटा
आप्तकाम के प्रतिनाद से

धुल गयी रोली क्षितिज तक 
उड़ता प्रमत्त नीड़ज 
मुस्कुरा उठा

तीर पर बैठी  अनूढ़ा 
देख रही यह सब

                                            ----सजल  

© 2012 कापीराईट सजल आनंद 


Sunday, 24 June 2012

       प्रेम 

         १

पा लूं अगर अपने 
साक्षी-भाव को 
और शेष भूल जाऊ 
जिसे ये दुनिया रोज़ मथती है 
तब भी प्रेम 
एक "घटना" ही रहेगा 

          २ 

गिलहरी की पूँछ 
लहराती है जब 
पत्तों का हिलना  
कितना सार्थक लगता है 
जैसे मेरी पक्षाभिकाएं
तुमसे द्रष्ट होकर 
लहरा जातीं  हैं 

         ३ 

नाखूनों के ओट से 
तुम्हारी अस्पष्ट काया 
तुम्हारे शब्दों की तरह हैं 
जिनसे मैं हांका जाता हूँ 
जाने किस ओर

          ४ 

हमारी-तुम्हारी परछाइयाँ 
दीवार पर 
बाँट रहीं हैं एक-दुसरे को 
कुछ न कुछ 
अगली रात वो फिर लौटेंगी 

          ५        

गाँठ लग चुकी है 
जीवन छन चुका है 
अब तुम 
 समय के अवट को भरते 
मल्हार से याद आओगे....

                                      -- सजल  (२२.०४.२०१०) 

© 2012 कापीराईट सजल आनंद                  

Saturday, 23 June 2012

  साथी चिड़ई

प्यारी,अतिप्यारी 
आह! कोमल 
नन्हीं-सी चिड़ियाँ 
कुछ ढूँढते 
आ बैठी है 
सेमल के वृक्ष पर 
"फट" से 

ग्रीवा चटख लाल 
बदन श्वेत-श्याम 
देश,वंश,प्रजाति 
मुझको अनाम 

मेरी अनामिका जितनी 
वो चिड़ियाँ 
मुझमे 
क्षण -भर के लिए ही सही 
एक खोया हुआ रोमांच है 

इस  वक़्त उसका आना 
मेरे बचपन के आ धमकने जैसा है 
जिसमे मैं अभी 
क्वार की दुपहरी में 
रसोई से चुराई 
पानी से भरी कड़ाही
छत पर रख 
बैठा हूँ थोड़ी दूर  
छुपकर 

चिड़ियाँ आई है 
एक 
बेहाल,बेचैन    
चिड़ियाँ नहाती है 
उस सुनहले तलैया के
पनियल आकाश में 
बुँदे उछालते 
मेरे बाल-मनोविज्ञान में 
एक रूमानी अभिनेत्री की शैली  में    

मुझे गुनगुनाता है 
उसका नहाना 
और यह गुदगुदी 
मेरे बचपन के 
जलते तलवों पर भारी है 

कोई चला गया है 
उसके जाने की आहट से 
खोया हुआ रोमांच 
फिर से ख़ोया है 
शायद बचपन?
शायद चिड़ियाँ ? 
नहीं ! चिड़ियाँ नहीं 
     " चिड़ई ! "

तुम गयी क्या ? 
मैं पूछता  हूँ 
उसके पंजो की 
ऊर्जा पाकर 
हिलती हुई पत्तियां 
कहती हैं 
 हाँ ....

सेमल से गिरतीं 
हवाई  "सिम्फनी" पर 
नाचती हैं 
 चमकीली उजास 
वाली रुई की गेंदें 
और एक तितली कौंधी है अभी-अभी 
हवा कातते
गुनगुनाते हुए 
कोई "विदा-गीत" 

मैं चाहूँगा की 
उसके डैनों  की फड़फड़ाहट     
ताज़ा रहें उस डाल पर 
अभी कुछ दिन और 
जब तक की 
सावन उसे धो न दे 


मेरे बचपन की साथी " चिड़ई "
तुम्हार धन्यवाद् 
और गंगा भाई !
एक प्याली चाय और 
बतौर उधार !! 

 © 2012 कापीराईट सजल आनंद                                           सजल (२६.०४.२०१०)

Friday, 22 June 2012

    खोयी हुई आँख



 पथरा  जाती हैं  खिड़कियाँ
जिनके शीशें 
दरक जाते हैं सालों पहले
 किसी धूल-भरी  आंधी में
खिड़कियाँ हो जाती हैं अंधी
बिना आँख वालें चेहरे में बिछी
 छोटी सुरंग जैसी
जिसमें  रोशनी एक सीमा पर 
सहम कर ठिठक जाती है 
वहीं  से शुरू होता है
अँधेरी आत्माओं का  कुलबुलाता शहर
जिसके एक कोने में ताश के पत्ते बतियाते हैं
दिनमान की टूटी पलंग पर बैठ 
दुसरे कोने में शहतूत के पेड़ों से 
चुराई हुईं इमारतों के अन्दर
 नशे में मदहोश चेलो 
 बजता है सारी रात 

कही संकरी गलियों में 
बदज़ुबा लोक-गीतों की मारी 
काली-गुलाबी और तंग पड़तीं औरतें 
अपने ढीलें होतें वस्त्रों से परेशान होकर 
फाड़ डालतीं हैं उसे
 एक रात 

चौराहों पर घोंघे की तरह
 मिलतें हैं लोग
अंपनी कांख खुजलाते हुए  
चौराहों से घोड़े की तरह
अलग होते हैं  लोग 
अपने दांत भींचते  हुए 

रेल की  पटरियों के पास 
जिन्दा मरघटों में 
जलते सूअरों  की गंध पाकर 
उतरती है
जलकुम्भी जैसी शाम 
पसरती है रात जब 
शहर और आत्मा एक हो जातें है 

हाँ !  शहर ऐसे ही होते हैं 
जहाँ  खिड़कियाँ पथरा जाती हैं 
जिनके शीशें 
दरक जाते हैं सालों पहले
 किसी धूल-भरी  आंधी में
मगर यह भी सच है की 
शहर में
छुपी हुई होती है कहीं 
वो खोयी हुई आँख   
 शायद उन्ही खिड़कियो के आस-पास 
जहाँ सीमायें अब भी तोड़ी जा सकती हैं
हाँ !  कभी तो 
                                                                   ---सजल  

© 2012 कापीराईट सजल आनंद

 

 


                  ओ मेरी


 ओ मेरी ! झूलते  अमलतासों को
 तोड़  ले गयी  मेरी स्मृतिओं से
 जबकि मुझ पर चमकती धूप को
 अपनी उँगलियों से दुत्कारती थी तुम 

और उस भटकी रात मैं
जो हीरे की तरह दुर्लभ था  हमारे लिए
बार-बार उफना था समंदर 
जब अधरों को  तुम्हारे
सहला गए थे मेरे केश
 मेघावृत खिड़कियों से आती
  फुहारों में सनकर 
तुम्हारे पारभासी होते वस्त्रो ने  
तुम्हारी पीठ से चिपक 
छोड़े  थे गंध
उन्ही अमलतासों के
आख़री बार
आकाशदीप से अचानक छलकी 
 रोशनी  मैं
एक  लम्बे अंतराल के बाद लिखी कविता की तरह
कौंधे थे तुम्हारे श्वेत-कत्थई
नर्म  व शर्मीले स्तन
जिसके शिखर पर
मेरे जीवन  का खुरदुरापन बिछा था
और एक थके मेमने की तरह
मेरी  जांघों पर दुबक तुमने लेना चाहा था  
एक छूटी पतंग  जैसी नींद

 तुम्हारे कान चुप  थे
 पर तुम्हारी बंद आँखे सुन रही थी मुझे
जब मैं तुम्हारी उँगलियों के
मायावर्ग मैं उचक-उचक कर
अपने जीवन की तमाम  रातों का
हिसाब कर रहा था

आईने-सा वो एक खामोश हिस्सा
जिसमे संवरता था हमारा प्रेम
 खो गया
अगली सुबह लौटती लहरों के साथ
- कहीं

तुम जानती थी की  
तुम्हारे नकली बागीचे मैं
मैं एक ख़ाली गमला-भर हूँ
तुम्हारे  चटख  सपनो की 
फैली घाटियों में
खनकती पाजेब  की गूँज के तले
मेरे स्वर दब गएँ थे 
जब एक गूंगे-भूखे शिशु की तरह
अपनी दोनों बाहें उठा  तुम्हे पुकारा था मैंने
पर तुम नहीं  थी..कही भी नहीं


ओ मेरी !! बरसात आई है फिर से 
मैं देख रहा हूँ की समंदर सीख रहा है
अब भी समंदर होना
इस बार चुपचाप मुस्कुराते हुए
मेरी आवाज़ लौट आई है
नहीं ! मुझे अमलतासो की नहीं तलाश
ये समूची पृथ्वी मैं ले जाऊंगा 
मिटटी मैं धसां वो फाल  भी 
नाज़ुक चेहरों पर उगे घाव भी 
बस इतना की
मेरी  आँखे कमज़ोर हो रहीं  हैं   
और मेरी भूख  मिट चुकी है
                                                                          
                                                            _ सजल
© 2012 कापीराईट सजल आनंद








  


Wednesday, 20 June 2012

          आज रात

आज पूरी रात मैं जागूँगा
अपने  कमरे से बाहर बुझे -अनबुझे
रोशनदानो को देखते हुए
मेरे मस्तिष्क के घरोंदो पर
बरसेगा खौलता पानी 
जिसे शहर  के लोग
अपनी काली नज़रों से गर्म करते हैं

एक तितली मेरे कंधे पर दम तोड़ेगी
मुझे महक सौंप कर
लपक कर उसे हवा छीन ले जाएगी
किसी और की गोद मैं
क्षितिज के ऊपर चमकेगी तस्वीर--
अपने पिता की बाहों से छूटता
शिशु मैं


मनहूस बदशक्ल मकानों से घिरी मेरी आत्मा
कोसेगी
एक खोई कब्र पर उग आये  झुरमुट की तरह
फैलते विचारो को ,सभ्यताओं को
मुद्राओं को,भूख को,अपनी कमज़ोर पड़ती
हड्डियों को ,संभवतः भाषाओँ को भी


दिवाभीत संगीत मेरी नाभि मैं सुस्तायेगा 
जब तक की अधकटा चाँद अपनी नाव न हटा ले
मेज़ पर सिर टीका रह जायेगा  सांसे घोटते
काली कॉफ़ी ठंडी हो जाएगी
और शायद अगली शाम को मैं
छीटक दूंगा दरिया पर  अपनी उदासी
पर आज रात ये सब कुछ होगा
एक-एक  करके ......

                                                              -    सजल

© 2012 कापीराईट सजल आनंद





   
                                         एक बात
                              
                               वृक्षों की जड़ो  की तरह
                               हमारे घरों  की  जड़ें-
                              धरती से जुड़ीं

                               वृक्ष का प्रिय अतिथि  बादल 
                               अपने दुनियावी घावों पर
                               मिट्टी का लेप  लगा
                               सुस्ताता है उसकी जड़ों मैं

                                सच है की वृक्ष देता है
                                सबको कुछ न कुछ !

                               और हमारें घरों के अन्दर
                               हमें अब भी
                              जाने और कितने अजनबी
                               घावों से पहचान करनी है
                               
                                हालाकिं
                                बिना किसी शर्त के
                                अपने घरों के अन्दर की
                                सारी यातनाएं हमें
                                स्वीकार होती हैं
                                यह जानते हुए भी
                                की हमारें घरों की
                                खिड़कियाँ,
                                दरवाजें ,
                                छतें ,
                                सीढ़ियाँ
                                सभी
                                मुह फाड़ें
                                मांगती रहती हैं
                                    हरदम
                                  हरसमय
                                  कुछ न कुछ !

                                पर कभी-कभी
                             ऐसा भी हो जाता हैं
                           जब घरों की
                          दीवारों पर
                                कुछ पौधें
                                       वृक्ष जैसे
                                        पनप जातें हैं
                        
                          उस समय जाने कौन
                            किसको सहारा 
                              दे रहा होता है?
                                                        -- सजल
       
                             
       © 2012 कापीराईट सजल आनंद                       
                               

                             
                     
                             

               

अलविदा चराग़ -ए-जिन


सपनो मैं ईटें उड़ती हैं 
आकाश का एक टुकड़ा चुराने को
चुम्बन कसैला हो जाता है
नीमकौड़ी  के जैसा

खूटियों पे सुस्तातें
दिन-भर के थके हाथ-पैर
खुद से जुड़ जातें हैं
दफ्तरों की  दुकाने
सिर पर अचानक
"धम्म" से गिर पड़ती हैं

जब आँखें खुलती है अल्सुबह
तब उनके ये सारे सपनें सच हो जाते हैं
एक-एक कर

चराग़ -ए-जिन तुम अब डूब जाओ
किसी अंधे कुऐं मैं 
तुम्हे अंतिम अलविदा
डूब जाओ..डूब जाओ...

© 2012 कापीराईट सजल आनंद


     वैसी ही शरद कि एक और रात


वो सुनता है आवाजें
जो ज़मीन के नीचे बनती हैं  
वो पीले मेंढकों के संगीत को
नदियों तक ले जाना चाहता हैं
जहाँ पर  कछुवे की उम्र जितने प्रौढ़ बादल
अब भी श्रृंगार करते हैं
अपने काली  भींगी छातियों से
खेतों को रिझाते हुए   
पर ऐसा है की 
नदी की उम्र काई  के रंग की हो चुकी है
 उसने ये फैसला किया है
वो अब और संगीत नहीं सुनेगा 
उसने उठाई है तूलिका 
ताकि वो काई को रंग कर हंस बना सके
पर बार-बार कोई उसके कन्धों पर
 सवार हो जाता है
अपनी लम्बी लटों से उसके रंग पोंछ देता है 
क्योंकी उसे आलिंगन चाहिए
 शिथिल होने के लिए   
जैसे मिट्टी भीच लेती है हवा की तपिश को
और फिर वही हुआ जैसा कि 
 कई शरद की रातों मैं हुआ है
उसके हाथ थरथराये
एक हंसनी 
उसके हाथों मैं गुलाब थमा कर
तूलिका  उड़ा ले गयी
वो मृत नदी के पास
सर्पिल मुद्रा मैं सारी रात सोता रहा
सुबह उसकी देह काई  के रंग की हो चुकी थी  

पीले मेंढक अब भी पीलें है
और उनका संगीत बेहद धीमा हो गया है ....
                                                                                                 सजल

© 2012 कापीराईट सजल आनंद