खोयी हुई आँख
पथरा जाती हैं खिड़कियाँ
जिनके शीशें
दरक जाते हैं सालों पहले
किसी धूल-भरी आंधी में
खिड़कियाँ हो जाती हैं अंधी
बिना आँख वालें चेहरे में बिछी
छोटी सुरंग जैसी
जिसमें रोशनी एक सीमा पर
सहम कर ठिठक जाती है
वहीं से शुरू होता है
अँधेरी आत्माओं का कुलबुलाता शहर
जिसके एक कोने में ताश के पत्ते बतियाते हैं
दिनमान की टूटी पलंग पर बैठ
दुसरे कोने में शहतूत के पेड़ों से
चुराई हुईं इमारतों के अन्दर
नशे में मदहोश चेलो
बजता है सारी रात
कही संकरी गलियों में
बदज़ुबा लोक-गीतों की मारी
काली-गुलाबी और तंग पड़तीं औरतें
अपने ढीलें होतें वस्त्रों से परेशान होकर
फाड़ डालतीं हैं उसे
एक रात
चौराहों पर घोंघे की तरह
मिलतें हैं लोग
अंपनी कांख खुजलाते हुए
चौराहों से घोड़े की तरह
अलग होते हैं लोग
अपने दांत भींचते हुए
रेल की पटरियों के पास
जिन्दा मरघटों में
जलते सूअरों की गंध पाकर
उतरती है
जलकुम्भी जैसी शाम
पसरती है रात जब
शहर और आत्मा एक हो जातें है
हाँ ! शहर ऐसे ही होते हैं
जहाँ खिड़कियाँ पथरा जाती हैं
जिनके शीशें
दरक जाते हैं सालों पहले
किसी धूल-भरी आंधी में
मगर यह भी सच है की
शहर में
छुपी हुई होती है कहीं
वो खोयी हुई आँख
शायद उन्ही खिड़कियो के आस-पास
जहाँ सीमायें अब भी तोड़ी जा सकती हैं
हाँ ! कभी तो
---सजल
© 2012 कापीराईट सजल आनंद

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