Monday, 9 July 2012

बांवरी गौरिया

बांवरी गौरिया
तुम्हे भ्रम हो गया है !

तुम्हारे चुने हुए तिनको में
नमी आ गयी है
और तुम्हारा वो स्थाई मुंडेर
रिसने लगा है

तुम्हारे गए हुए
सोहर,कजरी और चैती
अब एक चिढ पैदा करती है
और खुद तुम्हारे कंठ भी
अब "सँझा" भूल रहें है !!

आटा-चक्की से
हर शाम को आती
उस उदास आवाज़ में
 तुम्हारी चहक अब
हर चीज़ को बोझिल कर देती है

और गाँव तुम्हारा .....
जिस आम के गाँछ पर
तुम सुस्ताती थी
वो अब
किसी मरणशील हठयोगी-सा खड़ा है
वहीँ निर्जल

जिस बुढ़िया के कटोरे से
तुम गीला भात चुराती थी
वो अब
फेक दी गयी है फटे पोछे-सा
कहीं निर्जला

 वो धनेसर पड़ित सिवाले वाला
 जहाँ तुम मंडलाती थी तुलसा रानी के पास
अब विन्ध्याचल में
कालपुरुष का भय बेचता है

और एक था परमेसर चमार
हाँ वो ही ...
 जिसके ढहे  कुटुंब से  उड़कर
तुम्हारा कुटुंब
आया था हमारे यहाँ
अब  काट रहा है सज़ा
 भैस चोरी की 

और बिरहा गाता भिखारी अहीर 
जिसकी  आवाज़
बहुत दूर से आती थी 
अब
शहर के कारखाने में खटते-खटते
खाट धर चुका है 

मुझे याद है
तुम्हारी दादी
तुम्हारी माँ को
इन्द्रधनुष वाली कहानी सुनाती थी
इनार के ढेकुल पर बैठ
जिसमे ज़िक्र था
चील की डरावनी आँखों का ,
 बाढ़ की धार में बह गए अण्डों का


तुम्हारी माँ जिन खेतो से
केंचुए लाती थी तुम्हारे लिए
वो अब सरकारी हो गए
ढेकुल टूटा पड़ा है
इनार चुप है कई दिनों से
 मरे हुए कछुए लिए
 और अब तो दुकाने भी
सीमेंट वाली हो गयीं हैं !!

हाँ! तुम्हारा गाँव
जो सबका गाँव था
अब किसी का नहीं
उस एक गाँव में
सबके अपने-अपने गाँव हैं

पर तुम हो की मेरे बार-बार
रोशनदान साफ करने पर भी
फिर आ-धमकती हो
किस बात से घबराकर !!

मेरी गौरैया !
मुझे माफ़ करना
मैं भी अब इसी युग का
हो गया हूँ
तुम्हारी सारी हरकते
आनुवांशिक नहीं हो सकती
या फिर
बांवरी गौरैया.....
तुम्हे भ्रम हो गया है !

                                  ------सजल (०४-०१-०४).
© 2012 कापीराईट सजल आनंद


2 comments:

  1. बहुत ही अच्छा लगा आप की रचनायें पढ़ कर . बहुत प्रभावशाली लेखन है आप का . शुभकामनाएं .

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