Sunday, 24 June 2012

       प्रेम 

         १

पा लूं अगर अपने 
साक्षी-भाव को 
और शेष भूल जाऊ 
जिसे ये दुनिया रोज़ मथती है 
तब भी प्रेम 
एक "घटना" ही रहेगा 

          २ 

गिलहरी की पूँछ 
लहराती है जब 
पत्तों का हिलना  
कितना सार्थक लगता है 
जैसे मेरी पक्षाभिकाएं
तुमसे द्रष्ट होकर 
लहरा जातीं  हैं 

         ३ 

नाखूनों के ओट से 
तुम्हारी अस्पष्ट काया 
तुम्हारे शब्दों की तरह हैं 
जिनसे मैं हांका जाता हूँ 
जाने किस ओर

          ४ 

हमारी-तुम्हारी परछाइयाँ 
दीवार पर 
बाँट रहीं हैं एक-दुसरे को 
कुछ न कुछ 
अगली रात वो फिर लौटेंगी 

          ५        

गाँठ लग चुकी है 
जीवन छन चुका है 
अब तुम 
 समय के अवट को भरते 
मल्हार से याद आओगे....

                                      -- सजल  (२२.०४.२०१०) 

© 2012 कापीराईट सजल आनंद                  

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