ओ मेरी
ओ मेरी ! झूलते अमलतासों को
तोड़ ले गयी मेरी स्मृतिओं से
जबकि मुझ पर चमकती धूप को
अपनी उँगलियों से दुत्कारती थी तुम
और उस भटकी रात मैं
जो हीरे की तरह दुर्लभ था हमारे लिए
बार-बार उफना था समंदर
जब अधरों को तुम्हारे
सहला गए थे मेरे केश
मेघावृत खिड़कियों से आती
फुहारों में सनकर
तुम्हारे पारभासी होते वस्त्रो ने
तुम्हारी पीठ से चिपक
छोड़े थे गंध
उन्ही अमलतासों के
आख़री बार
आकाशदीप से अचानक छलकी
रोशनी मैं
एक लम्बे अंतराल के बाद लिखी कविता की तरह
कौंधे थे तुम्हारे श्वेत-कत्थई
नर्म व शर्मीले स्तन
जिसके शिखर पर
मेरे जीवन का खुरदुरापन बिछा था
और एक थके मेमने की तरह
मेरी जांघों पर दुबक तुमने लेना चाहा था
एक छूटी पतंग जैसी नींद
तुम्हारे कान चुप थे
पर तुम्हारी बंद आँखे सुन रही थी मुझे
जब मैं तुम्हारी उँगलियों के
मायावर्ग मैं उचक-उचक कर
अपने जीवन की तमाम रातों का
हिसाब कर रहा था
आईने-सा वो एक खामोश हिस्सा
जिसमे संवरता था हमारा प्रेम
खो गया
अगली सुबह लौटती लहरों के साथ
- कहीं
तुम जानती थी की
तुम्हारे नकली बागीचे मैं
मैं एक ख़ाली गमला-भर हूँ
तुम्हारे चटख सपनो की
फैली घाटियों में
खनकती पाजेब की गूँज के तले
मेरे स्वर दब गएँ थे
जब एक गूंगे-भूखे शिशु की तरह
अपनी दोनों बाहें उठा तुम्हे पुकारा था मैंने
पर तुम नहीं थी..कही भी नहीं
ओ मेरी !! बरसात आई है फिर से
मैं देख रहा हूँ की समंदर सीख रहा है
अब भी समंदर होना
इस बार चुपचाप मुस्कुराते हुए
मेरी आवाज़ लौट आई है
नहीं ! मुझे अमलतासो की नहीं तलाश
ये समूची पृथ्वी मैं ले जाऊंगा
मिटटी मैं धसां वो फाल भी
नाज़ुक चेहरों पर उगे घाव भी
बस इतना की
मेरी आँखे कमज़ोर हो रहीं हैं
और मेरी भूख मिट चुकी है
_ सजल
© 2012 कापीराईट सजल आनंद

ओ मेरी ! झूलते अमलतासों को
तोड़ ले गयी मेरी स्मृतिओं से
जबकि मुझ पर चमकती धूप को
अपनी उँगलियों से दुत्कारती थी तुम
और उस भटकी रात मैं
जो हीरे की तरह दुर्लभ था हमारे लिए
बार-बार उफना था समंदर
जब अधरों को तुम्हारे
सहला गए थे मेरे केश
मेघावृत खिड़कियों से आती
फुहारों में सनकर
तुम्हारे पारभासी होते वस्त्रो ने
तुम्हारी पीठ से चिपक
छोड़े थे गंध
उन्ही अमलतासों के
आख़री बार
आकाशदीप से अचानक छलकी
रोशनी मैं
एक लम्बे अंतराल के बाद लिखी कविता की तरह
कौंधे थे तुम्हारे श्वेत-कत्थई
नर्म व शर्मीले स्तन
जिसके शिखर पर
मेरे जीवन का खुरदुरापन बिछा था
और एक थके मेमने की तरह
मेरी जांघों पर दुबक तुमने लेना चाहा था
एक छूटी पतंग जैसी नींद
तुम्हारे कान चुप थे
पर तुम्हारी बंद आँखे सुन रही थी मुझे
जब मैं तुम्हारी उँगलियों के
मायावर्ग मैं उचक-उचक कर
अपने जीवन की तमाम रातों का
हिसाब कर रहा था
आईने-सा वो एक खामोश हिस्सा
जिसमे संवरता था हमारा प्रेम
खो गया
अगली सुबह लौटती लहरों के साथ
- कहीं
तुम जानती थी की
तुम्हारे नकली बागीचे मैं
मैं एक ख़ाली गमला-भर हूँ
तुम्हारे चटख सपनो की
फैली घाटियों में
खनकती पाजेब की गूँज के तले
मेरे स्वर दब गएँ थे
जब एक गूंगे-भूखे शिशु की तरह
अपनी दोनों बाहें उठा तुम्हे पुकारा था मैंने
पर तुम नहीं थी..कही भी नहीं
ओ मेरी !! बरसात आई है फिर से
मैं देख रहा हूँ की समंदर सीख रहा है
अब भी समंदर होना
इस बार चुपचाप मुस्कुराते हुए
मेरी आवाज़ लौट आई है
नहीं ! मुझे अमलतासो की नहीं तलाश
ये समूची पृथ्वी मैं ले जाऊंगा
मिटटी मैं धसां वो फाल भी
नाज़ुक चेहरों पर उगे घाव भी
बस इतना की
मेरी आँखे कमज़ोर हो रहीं हैं
और मेरी भूख मिट चुकी है
_ सजल
© 2012 कापीराईट सजल आनंद

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