वैसी ही शरद कि एक और रात
वो सुनता है आवाजें
जो ज़मीन के नीचे बनती हैं
वो पीले मेंढकों के संगीत को
नदियों तक ले जाना चाहता हैं
जहाँ पर कछुवे की उम्र जितने प्रौढ़ बादल
अब भी श्रृंगार करते हैं
अपने काली भींगी छातियों से
खेतों को रिझाते हुए
पर ऐसा है की
नदी की उम्र काई के रंग की हो चुकी है
उसने ये फैसला किया है
वो अब और संगीत नहीं सुनेगा
उसने उठाई है तूलिका
ताकि वो काई को रंग कर हंस बना सके
पर बार-बार कोई उसके कन्धों पर
सवार हो जाता है
अपनी लम्बी लटों से उसके रंग पोंछ देता है
क्योंकी उसे आलिंगन चाहिए
शिथिल होने के लिए
जैसे मिट्टी भीच लेती है हवा की तपिश को
और फिर वही हुआ जैसा कि
कई शरद की रातों मैं हुआ है
उसके हाथ थरथराये
एक हंसनी
उसके हाथों मैं गुलाब थमा कर
तूलिका उड़ा ले गयी
वो मृत नदी के पास
सर्पिल मुद्रा मैं सारी रात सोता रहा
सुबह उसकी देह काई के रंग की हो चुकी थी
पीले मेंढक अब भी पीलें है
और उनका संगीत बेहद धीमा हो गया है ....
सजल
© 2012 कापीराईट सजल आनंद

वो सुनता है आवाजें
जो ज़मीन के नीचे बनती हैं
वो पीले मेंढकों के संगीत को
नदियों तक ले जाना चाहता हैं
जहाँ पर कछुवे की उम्र जितने प्रौढ़ बादल
अब भी श्रृंगार करते हैं
अपने काली भींगी छातियों से
खेतों को रिझाते हुए
पर ऐसा है की
नदी की उम्र काई के रंग की हो चुकी है
उसने ये फैसला किया है
वो अब और संगीत नहीं सुनेगा
उसने उठाई है तूलिका
ताकि वो काई को रंग कर हंस बना सके
पर बार-बार कोई उसके कन्धों पर
सवार हो जाता है
अपनी लम्बी लटों से उसके रंग पोंछ देता है
क्योंकी उसे आलिंगन चाहिए
शिथिल होने के लिए
जैसे मिट्टी भीच लेती है हवा की तपिश को
और फिर वही हुआ जैसा कि
कई शरद की रातों मैं हुआ है
उसके हाथ थरथराये
एक हंसनी
उसके हाथों मैं गुलाब थमा कर
तूलिका उड़ा ले गयी
वो मृत नदी के पास
सर्पिल मुद्रा मैं सारी रात सोता रहा
सुबह उसकी देह काई के रंग की हो चुकी थी
पीले मेंढक अब भी पीलें है
और उनका संगीत बेहद धीमा हो गया है ....
सजल
© 2012 कापीराईट सजल आनंद

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