Wednesday, 20 June 2012

     वैसी ही शरद कि एक और रात


वो सुनता है आवाजें
जो ज़मीन के नीचे बनती हैं  
वो पीले मेंढकों के संगीत को
नदियों तक ले जाना चाहता हैं
जहाँ पर  कछुवे की उम्र जितने प्रौढ़ बादल
अब भी श्रृंगार करते हैं
अपने काली  भींगी छातियों से
खेतों को रिझाते हुए   
पर ऐसा है की 
नदी की उम्र काई  के रंग की हो चुकी है
 उसने ये फैसला किया है
वो अब और संगीत नहीं सुनेगा 
उसने उठाई है तूलिका 
ताकि वो काई को रंग कर हंस बना सके
पर बार-बार कोई उसके कन्धों पर
 सवार हो जाता है
अपनी लम्बी लटों से उसके रंग पोंछ देता है 
क्योंकी उसे आलिंगन चाहिए
 शिथिल होने के लिए   
जैसे मिट्टी भीच लेती है हवा की तपिश को
और फिर वही हुआ जैसा कि 
 कई शरद की रातों मैं हुआ है
उसके हाथ थरथराये
एक हंसनी 
उसके हाथों मैं गुलाब थमा कर
तूलिका  उड़ा ले गयी
वो मृत नदी के पास
सर्पिल मुद्रा मैं सारी रात सोता रहा
सुबह उसकी देह काई  के रंग की हो चुकी थी  

पीले मेंढक अब भी पीलें है
और उनका संगीत बेहद धीमा हो गया है ....
                                                                                                 सजल

© 2012 कापीराईट सजल आनंद



No comments:

Post a Comment