धीरे से अपने मन को
(१)
मैंने देखा-----
भंवर में नाचती : एक सूखी पत्ती
प्रकृति का स्वयंसिद्ध मृत्यु-उल्लास
मैंने देखा----------
एक चाँद समूचा
जिसके चेहरे पर किसी ने
सांझ की धुंधली तस्वीर से
मिट्टी निकाल पोत दी हो
मैंने देखा--------
एक शर्मिला ललमुहाँ सूरज
जो चाँद पर पुती मिटटी को
बैलों के पैरो के नीचे
दाबते जाता है
रोज़ थोडा-थोडा
मैंने देखा -----
आदिम प्रार्थनाएं
नींद में भटकतीं
अंतरिक्ष में
धूमकेतुओं की तरह
जिसपर लोगो की यह आस्था है
की वहां
हवा की अनुपस्थिति के बावजूद
उन्हें
कोई सुनता है
फिर चुनता है
चुनांचे लौट आते हैं लोग
अपने-अपने खोहों में
अगली प्रार्थना की तैयारी को
(२ )
कल्पना का क्रम टूटा
कुछ बेढंगी आवाज़ों से
लोगो के सिर पर कुछ गूमड़ उग आये थे
सामने थी कमज़ोर पड़ती एक नदी
जिसमे घुलती
मल और मालाएं
मूत्र और दीप
खखार और राख
लोथड़े और स्मृतियाँ
वे ठीक ही कहतें हैं
की आस्था मासूम होती है
( नाक की गन्दगी मुहँ में डाले शिशु की तरह )
(३)
आसपास की
दूर-दराज़ वाली जगहों में घूमा
उन्हें टोहा
टोहकर पाया
को मैंने अबतक जो देखा
वो फफूंद लगीखट्टी सब्जी की तरह
बासी था
विचार,नारें,घर,गलियां,हंसी,उदासी
सब कुछ
ये जो बारिश अभी-अभी शुरू हुई है वो भी
यहाँ तक की
मेरे ये सारे के सारे अवलोकन भी
तो क्या कुछ भी हरा-सा बचा है
वो भी काई हो जायेगा ?
(४)
झुंझलाए मन से
टीन के करकट के नीचे बैठ
मैं देख रहा था
अपने आसपास की
उन दूर-दराज़ वाली जगहों को
फिर से
पर इस बार
मैंने देखा---------
गर्भवती मादा खरगोश को
रोटी खिलाती
एक लरजती हुई बुढ़ियाँ
जिसकी झुर्रियों में
खीच जाती है कई मुस्कुराहटें
एक साथ
टांगों में टांग फँसाकर
गोल-गोल नाचते
शोर मचाते बच्चे
शहरी औरतों के
गवईं गीतों की
स्वर-लहरी को सुन
ठिठकी एक बिल्ली
मुंडेर पर बैठ
एक औघड़ कौवां
अपनी भींगी सुन्दरता पर
"हाय-हाय" करता
एक अटकी हुई
कागज़ की कश्ती को
अपना घर मान बैठा
घरेलूपन से मुक्त
एक प्रसन्न कनखजूरा
करकट से चूते
टिपटिपवा में नहाता
एक अल्हड मस्तमौला कुत्ता
और
हवा
फिर हवा में नाचती
एक और हवा --
फुहारों के साथ
मेरे चेहरे पर
सब कुछ भुला डालने जैसी
मदहोशी छीट कर
चुरा ले गयी मेरी थकान
कही अनंत में
(५)
मैंने धीरे से
अपने मन को कहा
ओ मन !
ऐसे में
टहलना ही उचित है
दौड़ने में तो
काफी कुछ
छूट जाता है !!
सजल (२४-०४-०९)
© 2012 कापीराईट सजल आनंद

दौड़ने में तो
ReplyDeleteकाफी कुछ
छूट जाता है !!
That's the ultimate truth!
ji bilkul...sach hi to hai...:))
Deleteमुंडेर पर बैठ
ReplyDeleteएक औघड़ कौवां
अपनी भींगी सुन्दरता पर
"हाय-हाय" करता
एक अटकी हुई
कागज़ की कश्ती को
अपना घर मान बैठा
घरेलूपन से मुक्त
एक प्रसन्न कनखजूरा ...
What an observation !! Beautiful :-)
bahut-bahut sukkriya aapka :))
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