अंगूर और औरत
(१)
कांच की तश्तरी पर
सोये अंगूरों की भी
एक कहानी है : सदियों लम्बी
जिसमे समन्दर को घेरे
बादलों-सी ख़ूबसूरत
एक मदगल रमणी
मासूम सेज़ पर लेटी
अपने मदनालय से
देती है उधार
गुलाब की हज़ारों पंखुरियों की गंध
अपने प्रेमी को
बुलबुल के मीठे अंदाज़ में
और ढ़ालती है अपने देश की गलियों को
अपनी नर्म और स्निग्ध देह के
मांसल मोड़ों की तरह
वो गलियाँ तुम्हारी कल्पना में
मिस्र,वेनीस या मगध की भी हो सकती हैं
वो पृथ्वी के दोनों ध्रुवों को
अपनी छाती पर टिकाये
जगाती हैं कोमल हरीयाए
विस्तृत तृणभूमि पर उछलते
रेशमी मेमने जैसी सुबह को
वो गुनगुनाती है रेतीली नदी-सी
सुनहली धुप को : बरसात की आवाज़ में
उसकी डबडबाती आवाज़ को सुन
खिची चली आती है
फड़फड़ाती हुई ---नीलम शाम
और स्त्री के काले केश से
कृष्ण-पक्ष के श्वेत तारकों से
तनी हुई सुन्दर काली रात निकलती है
ओढ़ाने धरती को
नींद की चादर
(२)
निष्ठुर तुम !!
ढहते चट्टानों-से निष्ठुर !
समय तुम!
किन रूहों की मौत मरे ?
तुम तो आये थे किसी विस्फोट से निकल
हममें भोजन और मुस्कान बांटने !
तुमने छोड़ दिए अपने गुप्तचर
वर्षों के!!
जो फैलते गए शैवालों की तरह
समूची दुनिया में
जिन्होंने गढ़ दिए
नए संवाद!
नए दृश्य!
नयी गंध!
नयी आवाजें!
जिससे चखा गया
स्वेद और अश्रुओं के बीच के
नमकीन अंतर को
जिससे सूंघा गया
पुष्प और रक्त के बीच बिछे
बारूदी सुरंग को
जिससे दृष्टि ने पृथक किया
खुली और ढकी जाँघों को
एक-दूसरे से
जिससे सुना गया
लय और चोट के बीच की
बारीक समझ को
और ये चोटें स्त्रियों के हिस्से में
ज्यादा आई
दो टांगों के बीच की चोट
करैत के ज़हर-सी घातक
जो घुमती है तंत्रिकाओं में
कई बरस
बेख़ौफ़-बेशर्म !
(३)
संवेदनाहीन तुम !
बर्फ में दबे तिनकों-से संवेदनहीन
तुम समय!
तुम्हें तो नष्ट हो जाना था उसी दिन
जब अंगूर पर्याय बना
हरम का
और सुनो क्षण-क्षण मरते मनुष्यों !
इन तश्तरियो में
स्त्रियों के शोक में डूबे
अंगूरों की कहानी
तुम्हारी भी कहानी है
उतनी ही पुरानी और सच्ची
जितना की तुम्हारा निषेचन !
देखो झांक के
अंगूरों के गुच्छों से
औरतें झाकतीं हैं
और मैं देख सकता हूँ उनमें
एक केशहीन स्त्री !!
-----सजल (२९-०७-२०११)
© 2012 कापीराईट सजल आनंद

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