Thursday, 5 July 2012

संबोध-गीत पर्दों के लिए



         (१)

पर्दें सिसकतें हैं  
जब उन पर आखिरी सिलाई 
चल चुकी होती है 
 जैसे सिसकती है कोई तरुणा
मुंह छुपाये अकेले में 
जब उसकी जाँघों पर रक्त की एक धार
लुढ़क जाती है जबरन 


           (२)

पर्दें हमारा अवचेतन मन है 
 हमारी एक दिलचस्प उपलब्धि 
खासतौर पर अब 
जबकि छुपाना
बेहद ज़रूरी हो चला है 
इस गुप्त-प्रयोगशाला जैसे जीवन की 
गतिविधियों को 
अपने ईर्ष्यालु 
पड़ोसियों और सगे-सम्बन्धियों से 


            (३)

 ढक लेते हैं परदे उन अधेड़ पुरुषों को 
जो अपने होठ रंग,साया पहन     
तलाशतें हैं दर्पण में अपने लिए 
एक सुन्दर औरत 

जो संवार रही होती है बाल

एज्ग्यांह देगा की तस्वीर जैसी  


               (४)

ढक लेते हैं पर्दें उन स्त्रियों को भी 
जो नहाने के बाद 
अपने गहनें उतार 
लेट जाती है बिस्तर पर 
विन्ची के रोमन अभियन्ता की मुद्रा में 
घर के पिछले दरवाज़े पर नज़रें गड़ाएं


               (५)

कभी-कभी झूलते हुए परदे
लगते हैं 
शिशुओं के हिलते पैरों की तरह
दरअस्ल उस वक़्त भी
वे लड़ रहे होते हैं 
सैटलाइटों की बुरी नज़रों से 
हमारे और आपके लिए 
सरहद पर तैनात फौजी की तरह 



             (६)

हम अभी और भी पर्दें लगायेंगे 
जैसे हम सजातें है घर के कोनो को 
पोलिस्टर के फूलों से 
क्योंकि मुक्त जीवन के सभी रास्तें जाते हैं
कबीलों की ओर 
जंगलों से होते हुए
वहां भी ओट लिए बैठें हैं 

शिकारी कई सारे !!


                            -------- सजल (२५/०७/२०११)


© 2012 कापीराईट सजल आनंद


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