Wednesday, 20 June 2012

अलविदा चराग़ -ए-जिन


सपनो मैं ईटें उड़ती हैं 
आकाश का एक टुकड़ा चुराने को
चुम्बन कसैला हो जाता है
नीमकौड़ी  के जैसा

खूटियों पे सुस्तातें
दिन-भर के थके हाथ-पैर
खुद से जुड़ जातें हैं
दफ्तरों की  दुकाने
सिर पर अचानक
"धम्म" से गिर पड़ती हैं

जब आँखें खुलती है अल्सुबह
तब उनके ये सारे सपनें सच हो जाते हैं
एक-एक कर

चराग़ -ए-जिन तुम अब डूब जाओ
किसी अंधे कुऐं मैं 
तुम्हे अंतिम अलविदा
डूब जाओ..डूब जाओ...

© 2012 कापीराईट सजल आनंद


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