Monday, 2 July 2012

छुट्टियों की जंग

युवा हूँ  
भड़क जाता हूँ 
जब बन्दूक करती है बकवास
उकता जाता हूँ
जब बातें होतीं हैं  सिर्फ पेट,दिमाग और लिंग की
उमस के मारे बंजर हो चुके मंचों पर
क्योंकि इन दिनों सिर्फ बातें ही हैं
और कुछ भी नहीं

जबकि ये दुनिया
तभी रह सकती है
जब इसमें बातें कम हों
और छुट्टियाँ ज्यादा !

और इन बातों के बीच
किसी अँधेरी शाम को जब
नज़रबंद जंगलों से
रिहा होकर आती ढंडी हवा
 घेर लेतीं हैं मुझे 
गुनगुना देता हूँ  प्रेम के कई गीत
जिसमे ज्यादातर बारिश होती है ,फूल होतें हैं
विषाद और शिकायतें भी
 -सिर्फ एक अजनबी स्त्री के लिए

किसी सफ़ेद रात को जब कदम लड़खड़ा रहे होतें हैं 
 भीच लेता हूँ  आवारा कुत्तों को अपनी बाँहों में
चूम लेता हूँ उन्हें लौट आये पिता की तरह 

 मगर यकीन जानें कठिन होती  है 
 युवा बने रहने की कवायद 
किसी मगरमच्छ को सहलाने जितना 

बड़ी तकलीफ होती है जब चश्मा फूट जाता है 
दर्द होता है जब कलम छूट जाती है जहाँ-तहां   
किताबो पर जमीं धुल जब झड़ती है 
तब कमरें में शर्म छींकती है-ज़ोर  से
नितम्ब सुन्न हों जाते हैं 
कुर्सी पर बैठे-बैठे
जब पन्नें कोरे रह जातें हैं
सुबह से शाम तक 
घरों की बाल्कनी में  झूलते नाड़ें
मुझे बतातें हैं की मेरे अन्दर का बायाँ त्रिकोण 
अब भी रिक्त है


कितनी  तिल्लियां जमा हो गयीं हैं बुझी हुईं
देखते-देखते पैरों के पास
सपनो के बोझ के मारे
कितनी दरारें आ गयी हैं चेहरे पर 
जीवन ब्लेड की धार पर खिसकता है
जिसमे अफ़सोस बहुत सारे हैं 

पर आज कई दिनों बाद फिर से
बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ ज़रूरत 
अभी-अभी फूली रोटी की तरह साफ़-शफ्फाक
एक नए पजामे की
जिसे पहनकर 
मैं जाऊंगा लड़ने 
छुट्टियों की जंग !

                                     -- सजल

© 2012 कापीराईट सजल आनंद





No comments:

Post a Comment