( विलंबित)
छीज रही है हवा
ख़ाली प्याली में भरी
नमकीन उदासी को
उस बेज़ार कूचे से
मिट्टी के तारों की
आ रही है
तेज़ श्वेत गंध
पहचान की
एक पुरानी रात
ढल रही है मुझमें
मैं ढूंढ रहा हूँ बिस्तर पर कुछ
अपनी एड़ियां रगड़ते
(मध्य)
एक खोया हुआ
नाम
नीले पंख लगाकर
मेरे होठों पर फड़फड़ा रहा है
मेरी पलक
अपनी साँसे रोके
थमी है
सिकुड़े पन्ने के
पीले धब्बें पर
जिसमें
मेरी
एक उम्र
बोल रही है --
(द्रुत)
मेरे पंजे भाग रहें हैं
उस तरफ
जहाँ मैं
ठहर गया था
पलकें हांफ रहीं हैं
मैं बंद हूँ
किसी नए संवाद के लिए
रात भर बोलेगी ये रात
मेरी उम्र से
उन रातों से
कोसों लम्बी
ये रात !
----सजल
© 2012 कापीराईट सजल आनंद
राग मारवा
(विलंबित)
काँप उठा
अलतई वृत्त
खींचता उसे
आकाश का दर्पण
तीर पर बैठी अनूढ़ा
देख रही यह सब
(मध्य)
स्पर्श पा
थिर हो गयी
लजाकर
लहर
खुल गए कुंतल
ढप गया दर्पण
प्रतीक्षारत नयनों में
घुल रही स्याही
मौन की
(द्रुत)
हिलोरती हवा
भींगे सेज को
मौन टूटा
आप्तकाम के प्रतिनाद से
धुल गयी रोली क्षितिज तक
उड़ता प्रमत्त नीड़ज
मुस्कुरा उठा
तीर पर बैठी अनूढ़ा
देख रही यह सब
----सजल
© 2012 कापीराईट सजल आनंद

प्रेम
१
पा लूं अगर अपने
साक्षी-भाव को
और शेष भूल जाऊ
जिसे ये दुनिया रोज़ मथती है
तब भी प्रेम
एक "घटना" ही रहेगा
२
गिलहरी की पूँछ
लहराती है जब
पत्तों का हिलना
कितना सार्थक लगता है
जैसे मेरी पक्षाभिकाएं
तुमसे द्रष्ट होकर
लहरा जातीं हैं
३
नाखूनों के ओट से
तुम्हारी अस्पष्ट काया
तुम्हारे शब्दों की तरह हैं
जिनसे मैं हांका जाता हूँ
जाने किस ओर
४
हमारी-तुम्हारी परछाइयाँ
दीवार पर
बाँट रहीं हैं एक-दुसरे को
कुछ न कुछ
अगली रात वो फिर लौटेंगी
५
गाँठ लग चुकी है
जीवन छन चुका है
अब तुम
समय के अवट को भरते
मल्हार से याद आओगे....
-- सजल (२२.०४.२०१०)
© 2012 कापीराईट सजल आनंद

साथी चिड़ई
प्यारी,अतिप्यारी
आह! कोमल
नन्हीं-सी चिड़ियाँ
कुछ ढूँढते
आ बैठी है
सेमल के वृक्ष पर
"फट" से
ग्रीवा चटख लाल
बदन श्वेत-श्याम
देश,वंश,प्रजाति
मुझको अनाम
मेरी अनामिका जितनी
वो चिड़ियाँ
मुझमे
क्षण -भर के लिए ही सही
एक खोया हुआ रोमांच है
इस वक़्त उसका आना
मेरे बचपन के आ धमकने जैसा है
जिसमे मैं अभी
क्वार की दुपहरी में
रसोई से चुराई
पानी से भरी कड़ाही
छत पर रख
बैठा हूँ थोड़ी दूर
छुपकर
चिड़ियाँ आई है
एक
बेहाल,बेचैन
चिड़ियाँ नहाती है
उस सुनहले तलैया के
पनियल आकाश में
बुँदे उछालते
मेरे बाल-मनोविज्ञान में
एक रूमानी अभिनेत्री की शैली में
मुझे गुनगुनाता है
उसका नहाना
और यह गुदगुदी
मेरे बचपन के
जलते तलवों पर भारी है
कोई चला गया है
उसके जाने की आहट से
खोया हुआ रोमांच
फिर से ख़ोया है
शायद बचपन?
शायद चिड़ियाँ ?
नहीं ! चिड़ियाँ नहीं
" चिड़ई ! "
तुम गयी क्या ?
मैं पूछता हूँ
उसके पंजो की
ऊर्जा पाकर
हिलती हुई पत्तियां
कहती हैं
हाँ ....
सेमल से गिरतीं
हवाई "सिम्फनी" पर
नाचती हैं
चमकीली उजास
वाली रुई की गेंदें
और एक तितली कौंधी है अभी-अभी
हवा कातते
गुनगुनाते हुए
कोई "विदा-गीत"
मैं चाहूँगा की
उसके डैनों की फड़फड़ाहट
ताज़ा रहें उस डाल पर
अभी कुछ दिन और
जब तक की
सावन उसे धो न दे
मेरे बचपन की साथी " चिड़ई "
तुम्हार धन्यवाद्
और गंगा भाई !
एक प्याली चाय और
बतौर उधार !!
© 2012 कापीराईट सजल आनंद सजल (२६.०४.२०१०)

पथरा जाती हैं खिड़कियाँ
जिनके शीशें
दरक जाते हैं सालों पहले
किसी धूल-भरी आंधी में
खिड़कियाँ हो जाती हैं अंधी
बिना आँख वालें चेहरे में बिछी
छोटी सुरंग जैसी
जिसमें रोशनी एक सीमा पर
सहम कर ठिठक जाती है
वहीं से शुरू होता है
अँधेरी आत्माओं का कुलबुलाता शहर
जिसके एक कोने में ताश के पत्ते बतियाते हैं
दिनमान की टूटी पलंग पर बैठ
दुसरे कोने में शहतूत के पेड़ों से
चुराई हुईं इमारतों के अन्दर
नशे में मदहोश चेलो
बजता है सारी रात
कही संकरी गलियों में
बदज़ुबा लोक-गीतों की मारी
काली-गुलाबी और तंग पड़तीं औरतें
अपने ढीलें होतें वस्त्रों से परेशान होकर
फाड़ डालतीं हैं उसे
एक रात
चौराहों पर घोंघे की तरह
मिलतें हैं लोग
अंपनी कांख खुजलाते हुए
चौराहों से घोड़े की तरह
अलग होते हैं लोग
अपने दांत भींचते हुए
रेल की पटरियों के पास
जिन्दा मरघटों में
जलते सूअरों की गंध पाकर
उतरती है
जलकुम्भी जैसी शाम
पसरती है रात जब
शहर और आत्मा एक हो जातें है
हाँ ! शहर ऐसे ही होते हैं
जहाँ खिड़कियाँ पथरा जाती हैं
जिनके शीशें
दरक जाते हैं सालों पहले
किसी धूल-भरी आंधी में
मगर यह भी सच है की
शहर में
छुपी हुई होती है कहीं
वो खोयी हुई आँख
शायद उन्ही खिड़कियो के आस-पास
जहाँ सीमायें अब भी तोड़ी जा सकती हैं
हाँ ! कभी तो
---सजल
© 2012 कापीराईट सजल आनंद
ओ मेरी
ओ मेरी ! झूलते अमलतासों को
तोड़ ले गयी मेरी स्मृतिओं से
जबकि मुझ पर चमकती धूप को
अपनी उँगलियों से दुत्कारती थी तुम
और उस भटकी रात मैं
जो हीरे की तरह दुर्लभ था हमारे लिए
बार-बार उफना था समंदर
जब अधरों को तुम्हारे
सहला गए थे मेरे केश
मेघावृत खिड़कियों से आती
फुहारों में सनकर
तुम्हारे पारभासी होते वस्त्रो ने
तुम्हारी पीठ से चिपक
छोड़े थे गंध
उन्ही अमलतासों के
आख़री बार
आकाशदीप से अचानक छलकी
रोशनी मैं
एक लम्बे अंतराल के बाद लिखी कविता की तरह
कौंधे थे तुम्हारे श्वेत-कत्थई
नर्म व शर्मीले स्तन
जिसके शिखर पर
मेरे जीवन का खुरदुरापन बिछा था
और एक थके मेमने की तरह
मेरी जांघों पर दुबक तुमने लेना चाहा था
एक छूटी पतंग जैसी नींद
तुम्हारे कान चुप थे
पर तुम्हारी बंद आँखे सुन रही थी मुझे
जब मैं तुम्हारी उँगलियों के
मायावर्ग मैं उचक-उचक कर
अपने जीवन की तमाम रातों का
हिसाब कर रहा था
आईने-सा वो एक खामोश हिस्सा
जिसमे संवरता था हमारा प्रेम
खो गया
अगली सुबह लौटती लहरों के साथ
- कहीं
तुम जानती थी की
तुम्हारे नकली बागीचे मैं
मैं एक ख़ाली गमला-भर हूँ
तुम्हारे चटख सपनो की
फैली घाटियों में
खनकती पाजेब की गूँज के तले
मेरे स्वर दब गएँ थे
जब एक गूंगे-भूखे शिशु की तरह
अपनी दोनों बाहें उठा तुम्हे पुकारा था मैंने
पर तुम नहीं थी..कही भी नहीं
ओ मेरी !! बरसात आई है फिर से
मैं देख रहा हूँ की समंदर सीख रहा है
अब भी समंदर होना
इस बार चुपचाप मुस्कुराते हुए
मेरी आवाज़ लौट आई है
नहीं ! मुझे अमलतासो की नहीं तलाश
ये समूची पृथ्वी मैं ले जाऊंगा
मिटटी मैं धसां वो फाल भी
नाज़ुक चेहरों पर उगे घाव भी
बस इतना की
मेरी आँखे कमज़ोर हो रहीं हैं
और मेरी भूख मिट चुकी है
_ सजल
© 2012 कापीराईट सजल आनंद
आज रात
आज पूरी रात मैं जागूँगा
अपने कमरे से बाहर बुझे -अनबुझे
रोशनदानो को देखते हुए
मेरे मस्तिष्क के घरोंदो पर
बरसेगा खौलता पानी
जिसे शहर के लोग
अपनी काली नज़रों से गर्म करते हैं
एक तितली मेरे कंधे पर दम तोड़ेगी
मुझे महक सौंप कर
लपक कर उसे हवा छीन ले जाएगी
किसी और की गोद मैं
क्षितिज के ऊपर चमकेगी तस्वीर--
अपने पिता की बाहों से छूटता
शिशु मैं
मनहूस बदशक्ल मकानों से घिरी मेरी आत्मा
कोसेगी
एक खोई कब्र पर उग आये झुरमुट की तरह
फैलते विचारो को ,सभ्यताओं को
मुद्राओं को,भूख को,अपनी कमज़ोर पड़ती
हड्डियों को ,संभवतः भाषाओँ को भी
दिवाभीत संगीत मेरी नाभि मैं सुस्तायेगा
जब तक की अधकटा चाँद अपनी नाव न हटा ले
मेज़ पर सिर टीका रह जायेगा सांसे घोटते
काली कॉफ़ी ठंडी हो जाएगी
और शायद अगली शाम को मैं
छीटक दूंगा दरिया पर अपनी उदासी
पर आज रात ये सब कुछ होगा
एक-एक करके ......
- सजल
© 2012 कापीराईट सजल आनंद

एक बात
वृक्षों की जड़ो की तरह
हमारे घरों की जड़ें-
धरती से जुड़ीं
वृक्ष का प्रिय अतिथि बादल
अपने दुनियावी घावों पर
मिट्टी का लेप लगा
सुस्ताता है उसकी जड़ों मैं
सच है की वृक्ष देता है
सबको कुछ न कुछ !
और हमारें घरों के अन्दर
हमें अब भी
जाने और कितने अजनबी
घावों से पहचान करनी है
हालाकिं
बिना किसी शर्त के
अपने घरों के अन्दर की
सारी यातनाएं हमें
स्वीकार होती हैं
यह जानते हुए भी
की हमारें घरों की
खिड़कियाँ,
दरवाजें ,
छतें ,
सीढ़ियाँ
सभी
मुह फाड़ें
मांगती रहती हैं
हरदम
हरसमय
कुछ न कुछ !
पर कभी-कभी
ऐसा भी हो जाता हैं
जब घरों की
दीवारों पर
कुछ पौधें
वृक्ष जैसे
पनप जातें हैं
उस समय जाने कौन
किसको सहारा
दे रहा होता है?
-- सजल
© 2012 कापीराईट सजल आनंद

अलविदा चराग़ -ए-जिन
सपनो मैं ईटें उड़ती हैं
आकाश का एक टुकड़ा चुराने को
चुम्बन कसैला हो जाता है
नीमकौड़ी के जैसा
खूटियों पे सुस्तातें
दिन-भर के थके हाथ-पैर
खुद से जुड़ जातें हैं
दफ्तरों की दुकाने
सिर पर अचानक
"धम्म" से गिर पड़ती हैं
जब आँखें खुलती है अल्सुबह
तब उनके ये सारे सपनें सच हो जाते हैं
एक-एक कर
चराग़ -ए-जिन तुम अब डूब जाओ
किसी अंधे कुऐं मैं
तुम्हे अंतिम अलविदा
डूब जाओ..डूब जाओ...
© 2012 कापीराईट सजल आनंद

वैसी ही शरद कि एक और रात
वो सुनता है आवाजें
जो ज़मीन के नीचे बनती हैं
वो पीले मेंढकों के संगीत को
नदियों तक ले जाना चाहता हैं
जहाँ पर कछुवे की उम्र जितने प्रौढ़ बादल
अब भी श्रृंगार करते हैं
अपने काली भींगी छातियों से
खेतों को रिझाते हुए
पर ऐसा है की
नदी की उम्र काई के रंग की हो चुकी है
उसने ये फैसला किया है
वो अब और संगीत नहीं सुनेगा
उसने उठाई है तूलिका
ताकि वो काई को रंग कर हंस बना सके
पर बार-बार कोई उसके कन्धों पर
सवार हो जाता है
अपनी लम्बी लटों से उसके रंग पोंछ देता है
क्योंकी उसे आलिंगन चाहिए
शिथिल होने के लिए
जैसे मिट्टी भीच लेती है हवा की तपिश को
और फिर वही हुआ जैसा कि
कई शरद की रातों मैं हुआ है
उसके हाथ थरथराये
एक हंसनी
उसके हाथों मैं गुलाब थमा कर
तूलिका उड़ा ले गयी
वो मृत नदी के पास
सर्पिल मुद्रा मैं सारी रात सोता रहा
सुबह उसकी देह काई के रंग की हो चुकी थी
पीले मेंढक अब भी पीलें है
और उनका संगीत बेहद धीमा हो गया है ....
सजल
© 2012 कापीराईट सजल आनंद
